Friday, April 9, 2010

प्रस्तुति - रामधन "अनुज"

लोग उम्मीद करते हैं

लोग उम्मीद करते हैं

कि अब की बार

सूखा नहीं पड़ेगा

गाँव के पास वाला बांध

पक्का बन जायेगा

जिससे बाढ़ रुक जाएगी;

फसलें अच्छी खड़ी हैं

शायद इस बार तो

पिछली उधर चुक जाएगी!

लोग उम्मीद करते हैं

अब की बार गाँव में

गणगौर, तीज और दीवाली

प्रेम से मनाई जाएगी

कहीं कोई बलवा नहीं होगा

होली सांझी जलेगी

सरपंच का चुनाव

शांति से हो जायेगा

कहीं गोली नहीं चलेगी!

लोग उम्मीद करते हैं

कि इस बार जिसे वोट दिया है

वह ईमानदार है

गाँव की तकलीफें पूछने

वह फिर आएगा

सड़कें पक्की हो जाएँगी

नहरों में पानी चलेगा!

हर घर में दोनों वक्त

चूल्हा जलेगा!

लोग उम्मीद करते हैं

यहाँ भी एक अस्पताल होगा

जिसमें डॉक्टर होंगे

अधिकारियों का आचरण शुद्ध होगा!

प्रकृति की गोद में बसे

हर गाँव का वातावरण शुद्ध होगा!

लोग उम्मीद करते हैं

लोग वर्षों से

उम्मीदों के सहारे जी रहे हैं;

और रोजमर्रा की जिन्दगी को

जहर की तरह पी रहे हैं!

टाइप-रामधन "अनुज"

छाया का विरोध पत्र

मैं पेड़ पर गीत लिखूंगा
जो तेज हवाओं में
तनकर खड़ा हो सके
भयंकर आंधी
तूफान
और बारिश का
अपनी मजबूत और गहरी
जड़ों के बलबूते पर
सामना कर सके
जो अपने संघर्षशील
और जुझारू व्यक्तित्व द्वारा
वातावरण में संगीत भर सके
लूओं के थपेड़े खाकर भी
जो प्राण-वायु बांटता है
तथा सूरज से बगावत करके
जिसका पत्ता-पत्ता
छाया का
विरोध-पत्र लिखता है
ठीक उसी प्रकार
मेरी शब्द रचना भी
धरती से रस खींचेगी
और उसकी लय
पत्ते-पत्ते को
रस से सींचेगी!

टाइप - रामधन "अनुज"

चौराहा

यहाँ आकर आदमी

एक बार रुक जाता है

यह सोचने के लिए

कि वह पीछे मुड़े

या आगे चलता जाये

निर्णय के क्षणों में इतिहास

और भविष्य की तस्वीर

एक दम उसकी आँखों के सामने

घूम जाती है!

यहाँ खड़े होकर लोग

कई महतवपूर्ण मुद्दों पर

बहस करते हैं

मसलन मंहगाई

राजनीती या बढती जनसंख्या पर

और अपने-अपने निर्णय

पीक की भांति

थूक कर चले जाते हैं!

अभी-अभी एक जुलूस गुजरा है

अपने दर्प से

तमाम शोर को कुचलते हुए

प्रदुषण को खत्म करना

उनकी मांग थी

भीड़ को नियंत्रित करने

अश्रु गैस छड़ी गई

लाठी चार्ज किया गया ;

शांति स्थापना के लिए

सात को हिरासत में लिया गया!

बंद हैं तमाम रस्ते

आदमी से आदमी तक जाने के

पुलिस गश्त जरी है

हर चौराहे पर

बख्तरबंद गाड़ी खड़ी है

सब ओर नीरवता है

सिर्फ एक अधफटा पोस्टर

हवा में फडफदा रहा है

जिस पर लिखा है

"दिल्ली चलो!"

Thursday, April 1, 2010

टाइप - रामधन "अनुज"

इस मौसम में

सब कुछ
इसी मौसम में हो जाएगा!
हमारे देखते-देखते
कुछ लोग
कबूतरों को चुग्गा डालने आएंगे,
शान्ति, समझौतों की बातें करते हुए
उनका एक हाथ
जेब में रखे चाकू पर होगा
और उनका सिर्फ इशारा भर होगा
कि उनके प्रशिक्षित बाज
हम पर झपट पड़ेंगे!
कपड़ो की तरह बदलते हुए
हवा का रुख
जब वे अपनी और
कर लेंगे,
तो हमारी यादाशत खो जाएगी!
अपना काम निकालना
उन्हें आता है
तजुर्बेकार हैं
जब जरुरत होगी
उनकी अंगुली
अपने आप टेढ़ी हो जाएगी!
इस मौसम में
जब वे परिवर्तन का नारा उछालते हैं
हमें जान लेना चाहिए
कि वे अपनी सुरक्षा का घेरा
और मजबूत कर रहे हैं!
तथा भीतर ही भीतर
किसी अनचाही स्थिति से
दर रहे हैं