Tuesday, March 2, 2010

मंगत बादल री राजस्थानी कहानी

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सुरंग

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रामरख बाखल में चारपाई पर बैठा ढेरिये से जट्ट कात रहा था। पास में ही हुक्का पड़ा था। बीच-बीच में घूंट मार लेता। इस काम वाले मौसम में जब किसान को खेत में होना चाहिए, वह घर बैठा है। उसकी तरह गांव के दूसरे लोग भी घर बैठे हैं। करें भी तो क्या? खेत में तो जा नहीं सकते। चार वर्षों बाद इस बार अच्छी बारिश हुई। खेतों के साथ-साथ लोगों के चेहरे भी हरे हो गए। पर यह युद्ध का खतरा आ पड़ा। भारत-पाक अन्तरराष्ट्रीय सीमा पर तनाव बढ़ गया। सीमा पर फौज ने आकर डेरे डाल लिए। राजस्थान में तो श्रीगंगानगर से लेकर जैसलमेर तक फौज ही फौज पड़ी है। जैसलमेर-बाड़मेर की तरफ तो कुछ फर्क नहीं पड़ता। वहां तो धोरे ही धोरे हैं। परंतु श्रीगंगानगर से लेकर खाजूवाला तक जहां नहरी इलाका है, फसलें लहलहा रही थी।

फौज ने आकर खेतों पर कब्जा जमा लिया। खेतों में बारूदी सुरंगे बिछा दी। एलान करवा दिया कि खेतों में कोई नहीं जाए। जान का खतरा है। इन बारूदी सुरंगों से दुश्मन तो पता नहीं कब मरेगा, किसान तो इनके बिना चले ही मर गए। कल ही वह खेत का चक्कर लगा कर आया है। कैसे रहा जाए? उसने देखा सरसों फलियों से लदी-फदी पक कर तैयार खड़ी है। अभी दांती डाल लो बस! उसके ही नहीं, अबकी बार अघिकांश लोगों के खेतों में सरसों और गेहूं की फसल खूब फली है। पर फलने से क्या होता है? खेतों में तो बारूदी सुरंगें दबी हुई हैं। कौन काटे? फसलें तो उस पार पाकिस्तान में भी ऎसे ही खड़ी नजर आ रही हैं। वहां भी तो बारूदी सुरंगे दबीं होंगी। वहां के काश्तकार भी...।

गांव के ज्यादातर लोगों के खेतों में बारूछी सुरंगे दबी हुई है। लोग खेत कैसे जाएं? पशुओं के लिए हरा कहां से लाएं? सूखी तूड़ी खाकर पशु तृप्त नहीं होते, इस कारण दूध भी कम देते हैं। लोग दिन भर गुवाड़ में बैठे ताश खेलते हैं। नहीं तो क्या करें? जिन दिनों गांव में दिहाड़ी पर मजदूर नहीं मिलता, उन दिनों में लोग हाथ पर हाथ धरे खाली बैठे हैं। समूचे गांव में कोई दो-चार घर ही होंगे, जिनका काम ठीक-ठाक चल रहा है, बाकी लोग तो बस जैसे-तैसे दिन काट रहे हैं। जिंदगी से धक्का-मुक्की कर रहे हैं। खाने के लिए थोडे बहुत दाने तो फिर भी पडे हों, पर पैसा तो जहर खाने के लिए भी नहीं है। थोड़ा-सा काम पड़ने पर ही लोग मंडी में आढ़तिए से उधारी के लिए भागते हैं। आढ़तिया तो आने वाली फसल को देखकर ही पैसे देता है। जब फसल ही नहीं आनी, तो पैसे किस बिला पर दे। यह खबर भी आई बताते हैं कि जिन खेतों में बारूदी सुरंग बिछाने से किसानों का जो नुकसान हुआ है, सरकार उसका मुआवजा देगी। परंतु कब? यह किसी को भी पता नहीं। का बरखा जब कृषि सुखाने। लोग असमंजस में है। यहां गांव में लोग ऊपर से चाहे मजबूत दिखाई देते हैं परंतु भीतर से सब खोखले हैं। चार-चार अकाल! क्या बचता है? बगल उठाने से कलेजा दिखाई पड़ता है!

"रामरख भाई!" आवाज सुनकर जैसे उसकी तन्द्रा भंग हुई। बोला, "कौन है? ओह! हरखो! आजा, हुक्का पीले। आ बैठ!" कहकर वह चारपाई के एक तरफ खिसक गया।

"अकेले कैसे बैठे हो?" हरखो चारपाई पर बैठते हुए बोला।

"तो कहां जाएं, तू ही बता। मुझे न तो ताश खेलनी आती है और न ही गप्पें मारनी। फिर घर न बैठूं तो कहां जाऊं।"

खड़-खड़ हंसा हरखो, "गप्प मारनी भी सीखनी पड़ती है क्या? मुझे तो आज ही पता लगा है।"

"खैर छोड़। कैसे आया? कोई काम तो नहीं है?" रामरख ने पूछा।

"आया क्या भाई? काम से आया हूं। पांच सौ रूपये चाहिए। दो महीने हो गए, बेटी आई हुई है ससुराल से। कल से दामाद आकर छाती पर बैठा है। लड़की को लेने आया है। आप ही बताओ। कुछ तो तीवल-तागा करवाना पडेगा। लड़की को खाली हाथ तो भेजने से रहे। यहां भी बिचारी कौनसी खाली बैठी रही है। हमें भी फर्ज निभाना होगा।" हरखो एक सांस में ही सारी बात कह गया।

"कहीं रूपयों का जुगाड़ बैठा क्या?" रामरख ने पूछा।

"बैठ जाता तो आपको कथा सुनाने के लिए वक्त कहां होता। सीधा मंडी जाकर कपडे ले आता। पर क्या करूं? किसी के पास इत्ता पैसा ही नहीं है।"

"आढ़तिए को टटोल कर देख ले। पूरे बीस किल्लों का धणी है तू। देगा क्यों नहीं? उसे कमाई नहीं होगी क्या? बनिया ब्याज की कमाई से तो फलता-फूलता है। वो कौनसे दिन खेत में हल चलाता है।" हुक्का गुड़गुड़ा कर रामरख बोला। पांच-छ: दिन पहले खल-बिनोला लाने गया था। तब सेठ ने कहा, "भाई हरखा, पिछली फसल के पांच हजार अब तक बाकी पड़े हैं। ब्याज अलग! तुम्हारे खेतों में इस बार बारूदी सुरंगें लग गई। तुम ही बताओ कहां से दूं। ऊपर से कुछ नहीं डालें, तो कुएं के कुएं रीत जाए। मेह बरसे बिना तो धरती जो मां है, वह भी फल नहीं देती। मैं तो बाल-बच्चेदार आदमी हूं। कल को मुझे काम पड़ गया, तो कहां जाऊंगा?" ऎसा कहा सेठ ने तो! इतना कहकर हरखो चुप हो गया।

"फिर?"

"फिर क्या? मैंने कहा, आपकी पाई-पाई ब्याज समेत चुकाऊंगा। पर इस घड़ी आपके पास नहीं आएं तो कहां जाएं? टूटा हुआ पेट घुटनों पर ही आता है। आपकी मर्जी दो तो दो, मत दो तो मत दो। फिर उसने खल-बिनोला तो मुझे दिलवा दिए, पर अब उसके पास जाकर मांगने की हिम्मत नहीं होती। सच्ची बात है भाया। बारूदी सुरंगें दबी है तो अपने दबी है। वो बिचारे क्या करें? बाल बच्चे तो उनको भी पालने हैं।"

तभी जोर से धमाका हुआ। दोनों भाग कर गली में आए। दो-तीन लोग भागे जा रहे थे। एक व्यक्ति भागता-भागता कह रहा था, "सुरंग चली है। पता नहीं कौन चपेट में आ गया?"

"पिछले डेढ़-दो महीनों से सुरंग दबी हुई है। दूसरे-तीसरे दिन कोई ना कोई आदमी या पशु चपेट में आता ही है। इलाके में आठ-दस आदमी तो मर गए और पचासों हाथ-पांव खोकर अपंग हो बैठे। पशुओं की भला कौन गिनती करता? बिचारे भूख मरते हरा चारा देखकर खेत में घुस जाते हैं और..। पशु क्या कई आदमी भी इस लालच में मर गए।" हरखो बोला।

"सच कहा। कल मेरे पास जैलाल आया था। बिचारा पहले तो खेतों में जाकर मजदूरी कर लेता, पर अब कहां करे?" कहने लगा "भाया रामरख! आप कहो तो मैं आपकी सरसों काट दूं चौथिये पर! पर मैंने उसको रोक दिया।"

"क्यों? आपके क्या कांटों में हाथ जा रहे थे?" हरखो बोला।

"कांटों में हाथ? क्यों हत्या सिर पर लें भाई? ये दबी हुई सुरंगें तो कभी न कभी चलनी ही हैं। उन पर चाहे कोई पांव धरे- आदमी या पशु, उनको तो चलना ही है। इनसे कोई न कोई अपंग होगा या मरेगा, यह बात जानते हुए भी मैं जैलाल को खेत में कैसे जाने दूं?" रामरख ने उत्तर दिया।

"अंधेरे-उजाले ज्यादातर लोग मौका पाते ही कभी सरसों, तो कभी गेहूं तो कभी छोले उखाड़ लाते हैं। करें भी क्या? पेट को तो खुराक देनी ही पड़ती है। मरने का डर है तो भूखा रहकर जीना कौनसा आसान है। इस मौके यहां उधार दे ही कौन? पता नहीं कब लड़ाई छिड़ जाए और डेरा-डंडा उठाकर भागना पड़ जाए। जिसकी गांठ में दो पैसे हैं वह दबाए बैठा है। हवा ही नहीं लगने देता।" कहकर हरखो ने लम्बी सिसकार भरी।

"बात तो आपने सच्ची कही भाया! पर मेरे पास तो सौ रूपए ही हो तो सौगंध ले ले। भगवान ना करे आज कोई आफत सिर पर आ पडे। कहां जाएंगे? क्या करेंगे? मुझे तो सोचकर ही डर लगता है।" रामरख ने सफाई दी।

"नहीं-नहीं मैं तो बात कर रहा था। आपके घर की हालत मुझसे छुपी हुई है क्या?"

"अरे भाई! याद आया!" रामरख बोला। "तुम्हारा काम बन सकता है। मैं पिछले महीने तुम्हारी भाभी के लिए एक तीवल लेकर आया था। साढे तीन सौ रूपए लगे थे। मैं तो मेरी समझ में सुंदर देखकर ही लाया। लड़की को दिखा दे। पसंद आ जाए तो रख लेना। एक बार तो काम निकले। पैसे फिर आते रहेंगे।" रामरख की बात सुनकर हरखो के चेहरे पर चमक-सी आई पर फिर बुझ गई। बोला, "ना भाया! भाभी क्या सोचेगी? लाए हुए कपडे ही ले गया!" "सोचेगी क्या? सबके घरों में मिट्टी के चूल्हे हैं! हमारे कौनसी तंगी नहीं आती। आज हम तो कल तुम। इसमें शर्म की क्या बात है? लड़की को तो अपने घर भेजना ही है। पसंद आ जाए तो रखले। मन में कोई गिरगिराट मत कर।

"पसंद ना पसंद की भली बात कही भाई रामरख! मजबूरी का कैसा मोल? मुझे तो ऎसा लग रहा था कि यदि तीवल नहीं ला सका, तो कहीं कुआं-खाड करना पडेगा! क्या मुंह दिखाता बेटी को।" हरखो द्रवित हो उठा।

"अपन तो बातों में ही रम गए। रामरख ने बात बदली। चलकर देखें तो सही, क्या हुआ?" इतना कहकर दोनों खेतों की ओर चल पडे। गांव से तीन चार मरब्बा दूर सरहद थी। जहां दो देशों को अलग करने वाली कंटीले तार की बाड़ थी। उस पार पाकिस्तान की तरफ भी लोग खेती करते हैं। वहां के किसान भी नरमा, कपास, बाजरी, ज्वार, गेहूं, सरसों की बिजाई करते हैं। हमारी तरफ भी यही फसलें हैं। वर्षा भी दोनों तरफ एक साथ होती है। अकाल पड़ता है तो वह भी छुपा नहीं रहता। समय की बात तो बटोड़े भी बता देते हैं। इस बार दोनों तरफ अच्छा जमाना था। लेकिन दोनों देशों के बीच तनाव पैदा हो गया। कौन पैदा करता है यह तनाव? ना यहां के किसान जानते हैं, ना सीमा पार वाले। दोनों देशों के बीच तनाव पैदा होता है तब बचाव के लिए सुरंगें लगाई जाती हैं। वे जमीन से पहले किसान की छाती में लगती है। वो भले ही कोई देश, कोई समय हो। रामरख और हरखो आगे बढ़ते जा रहे थे। रास्ते पर मोड़ में उनको चार-पांच गांव वाले मिले। एक उनको बताने लगा, "पाकिस्तान की ओर फटी है सुरंगे। एक फौजी बता रहा था कोई किसान अपने खेत में चोरी छिपे सरसों काटने आया था। चिथडे-चिथडे होकर बिखर गया। मांस के लोथडे सीमा पार कर अपनी तरफ भी आ गिरे।"

"अच्छा" कहकर हरखो ने सिसकार भरी। सोच रहा था, "शायद उस बिचारे के घर भी लड़की को ले जाने के लिए दामाद आकर बैठा होगा। उधार पैसे नहीं मिले होंगे। मुझे तो रामरख भाई तीवल दे देगा, पर सबको ही मिल जाए, जरूरी है क्या?

अनुवाद: मदन गोपाल लढ़ा

2 comments:

  1. आपरो ब्‍लॉग देख'र घणो हरख हुय रैयो है।

    ब्‍लॉगिंग री दुनिया मांय आपरो सुवागत है


    नित उल्‍लेखजोग रचनावां साम्‍ही आसी, इणी उम्‍मीद अर आस साथै-


    www.dularam.blogspot.com

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  2. dr. saab. aacchi kahani saru aap ne badhae. aap ro blog pele vaari dekhyo .aabhar

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